इस्लाम और जातिवाद

यह कहा जा सकता है कि इस्लाम दो तरह का है एक अशराफ का इस्लाम और दूसरा पसमांदा का इस्लाम। पसमांदा ऊंच नीच रहित मुहम्मद के सैद्धान्तिक इस्लाम की वकालत करता है वहीं अशराफ अपने द्वारा व्याखित इस्लाम को ही इस्लाम मानता है और उसे ही पसमांदा पर लादे हुए है। और विडम्बना यह है कि अशराफ का इस्लाम ही समाज में मान्य और प्रचलित है।


22 April 202228 min read

Author: Faizi

इस्लाम को अक्सर ना सिर्फ एक जातिवादी रहित बल्कि जातिवादी विरोधी धर्म के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। इस लेख में हम इस बात की विश्लेषण करने की चेष्टा करेंगें कि उक्त तथ्य की सच्चाई क्या है।

क़ुरआन

क़ुरआन में ऐसी कोई पंक्ति (आयत) नही है जिसे जातिवाद के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके। बल्कि क़ुरआन की एक बहुत ही प्रसिद्ध आयत (पंक्ति) है (सुरः हुजुरात आयत न० 13), जिसमें कहा गया है कि ईश्वर ने इंसानों को एक नर और मादा से पैदा किया फिर जाति/क़बिले में बांट दिया ताकि लोग एक दूसरे को पहचान सके और लोगो में ईश्वर के समीप वही सम्मानीय है जो उससे डरता (तक़वा) हो (जिस कारण धर्मपरायण हो)। अक्सर अशराफ द्वारा जातिवाद के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि जातियाँ कभी भी ख़त्म नही हो सकती क्यो कि क़ुरआन में है कि जातियाँ पहचान के लिए बनाई गईं हैं।

उक्त आयत(पंक्ति) की तफसीर (व्याख्या) लिखते हुए कुछ अशराफ उलेमा(इस्लामी विद्वानो) ने लिखा है कि मर्द औरत से उच्च है लेकिन तभी जब वह धर्म-परायण हो, अरबी को गैर-अरबी पर बड़प्पन है तो इसी (तक़वा/धर्म परायणता) आधार पर, सैयदों(बनू हाशिम) को अन्य अरब और गैर-अरब पर यह बड़प्पन है तो वह भी उस समय जब बड़प्पन की आत्मा अर्थात तक़वा(ईश्वर से डर/धर्म परायणता) हाथ से ना जाये, लेकिन उर्फी इज़्ज़त (सामाजिक सम्मान) में इन सारे चीज़ों का(मर्द, अरबी और सैयद होना) बड़प्पन मोअतबर (ठीक, भरोसे के लायक) है। फिर लिखते हैं कि इसप्रकार असल बड़प्पन तक़वा(धर्म परायणता) है लेकिन इसपर भी गर्व करना हराम(वर्जित) है, इसलिए जैसे तक़वा पर गर्व करने की मनाही से तक़वा के उच्च होने का इनकार नही हो सकता उसी तरह किसी विशेष अंसाब(वंश,जातियों) पर गर्व करने के मनाही से उन जातियों के उच्च होने का इनकार नही होता। प्रसिद्ध अशराफ आलिम अशरफ़ अली थानवी लिखते हैं

“नसब (वंश,नस्ल,जाति) पर गर्व नहीं करना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि शर्फ़ नसब (उच्च जाति) कोई चीज़ ही नहीं। देखो आदमी का हसीन-जमील (सुंदर) होना बदसूरत (कुरूप) या अँधा ना होना यद्दपि गैर-इख्तियारी (अनैच्छिक) है और इस पर गर्व ना करना चाहिए मगर क्या कोई कह सकता है कि सुंदर होना नेअमत (इश्वर की कृपा/उपहार) भी नही, यक़ीनन (पूर्ण विश्वास के साथ) आला दर्जे (उच्च स्तर) की नेअमत है। इस तरह यहाँ समझो कि शर्फ़ नसब (उच्च जाति) गैर-इख्तियारी (अनैच्छिक) क्रिया होने की वजह (कारण) से गर्व करने का कारण नहीं है, लेकिन इसके नेअमत (ईश्वरी उपहार) होने में शुबहा (शंका) नहीं।(अत-तबलीग़ पेज 218 जिल्द 8, हकीमुल-उम्मत अशरफ अली थानवी, इस्लामी शादी (मुरत्तब मौलाना मुफ़्ती मुहम्मद ज़ैद मज़ाहीरी नदवी), पेज न०62,फरीद बुक डिपो 422 मटिया महल उर्दू मार्किट जामा मस्जिद देहली- 110006)


फिर लिखते हैं कि बराबरी और मसावात आख़िरत (मरने के बाद का जीवन जहाँ स्वर्ग-नरक है) के लिए है दुनिया मे बहरहाल लोगो के जाति बड़प्पन और अस्मिता का ध्यान रखना ज़रूरी है, उच्च जाति में पैदा होना ईश्वर की एक बड़ी ने अमत (कृपा) है।

मुहम्मद(स० अ० व०) का व्यक्तित्व

अरब के अभिजात्य यहूदी मुहम्मद (स० अ० व०) को उनकी जाति का ताना मारते हुए उनकी नबूवत (ईश दूत होना) का मज़ाक़ उड़ाते हुए ईशदूत होने को यह कह कर अस्वीकार करते थे कि वो एक गुलाम महिला की संतान में से हैं भला उनमें कैसे कोई ईशदूत आ सकता है ईशदूत तो यहूदियो* (बनी इस्राइल= इस्राइल के सन्तान) में होते आये हैं। ज्ञात रहें कि मुहम्मद(स० अ० व०) के पूर्वज क़ुरैश (क़ुरैश, व्यक्ति का नाम है इस नाम से जाति बनू क़ुरैश है जिसे संक्षेप में केवल क़ुरैश भी कहते हैं, जैसे भारत में ब्राह्मणो के गोत्र का नाम व्यक्ति के नाम पर होता है जैसे शांडिल्य, भारद्वाज, उपमन्यु आदि) और उनके पूर्वज इस्माइल थे जो इब्राहिम की पत्नी सारा की गुलाम हाजरा से उत्पन्न थे जिसे सारा ने इब्राहिम को दे दिया था जब उनसे सन्तान नही हो पा रहें थे।

मुहम्मद (स० अ० व०) का व्यक्तित्व, उनका यहूदियों द्वारा जाति आधारित तिरस्कार एवं उनका जातिविरोधी रवैय्या जिसमें अपने ग़ुलाम ज़ैद की शादी अपने फूफी (बुआ) की लड़की से करवाना (अशराफ उलेमा इस शादी को, जो मुहम्मद के जीवनकाल में ही टूट गयी थी, को जातिवाद के पक्ष में प्रस्तुत करते हैं कि ज़ैद-ज़ैनब(र०अ०) की शादी के टूटने का कारण गैर कूफु/गैर बराबरी में विवाह करना था), एक काले हब्शी शक़रान (जो अंतिम संस्कार के समय मुहम्मद को क़ब्र में उतारने वालो में उनके परिवार के अतिरिक्त अकेले व्यक्ति थे) को अपने विशेष प्रिय लोगो में रखना, काले हब्शी बिलाल (र०अ०) को अपने प्रिय और मुख्य उद्घघोषक (मोअज़्ज़िन= जो प्रार्थना के लिए उद्धघोष करता है) के रूप में रखना, गुलाम के लड़के ओसामा को एक युद्ध विशेष के लिए सेनापति बनाना आदि से पता चलता है कि वो जातिवाद और नस्लपरस्ती के विरोधी थे।

यहूदियो को अपनी जाति/नस्ली बड़प्पन का बड़ा अभिमान था, वो गैर-यहूदी अरबो को तुच्छ समझते थे। गैर-यहूदी अरबो की सामाजिक राजनैतिक आर्थिक और शैक्षिक परिस्थितियाँ भी अत्यंत दयनीय थी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस्लामी इतिहास लिखने वालों में यह बात प्रसिद्ध है कि अरबो पर कोई शासन तक नही करना चाहता था। इसके बावजूद भी गैर-यहूदी अरबो को भी अपनी नस्ल और जाति को लेकर बड़पन का अभिमान था, वो क़बीला के रूप में जो उनकी जातिगत पहचान का प्रतीक था आपस मे इस बात को लेकर खून खराबा भी किया करते थे। एक क़बीले के लोग खुद को दूसरे कबिले से श्रेष्ठ समझते थे।

हदीस

मुहम्मद(स० अ० व०) के कथन और क्रियाकलापो को सामूहिक रूप से हदीस कहा जाता है लेकिन ज्यादातर हदीस का शब्द मुहम्मद के कथन को इंगित करता है। मुहम्मद (स० अ० व०) के कथनो में जातिवाद को लेकर परस्पर विरोधाभास मिलता है। कहीं उनके कथन जातिवाद के पक्ष में है तो कहीं जातिवाद के विरोध में बिल्कुल एक हदीस दूसरे हदीस के रद्द में।

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सुन्नत और हदीस का फ़र्क, क्या हदीसें कुरआन जितनी ही प्रामाणिक हैं

जातिवाद के विरोध की हदीसें

“ऐ लोगो! निःसन्देह तुम्हारा रब (पालने वाला) एक है और निःसन्देह तुम्हारा पिता एक है तुम सब आदम से हो और अदम मिट्टी से (बना) है। किसी अरबी को किसी अजमी (अरबो के अलावा अन्य क्षेत्र और जाति के लोग) पर न किसी अजमी को किसी अरबी पर, न लाल (रंग वाले व्यक्ति) को काले (रंग वाले व्यक्ति) पर, न काले को लाल पर, कोई बड़प्पन नही, सिवाय तक़वा (धर्मपरायणता) के।” “लोगो! मैं तुम्हारे बीच दो ऐसी चीज़ छोड़कर जा रहा हूँ कि अगर मज़बूती से थामे रखोगे तो इसके बाद कभी गुमराह (पथभृष्ट) ना होंगे, और वह ईश्वर की किताब (क़ुरआन) है, और नबी (ईशदूत) की सुनन (क्रियाकलाप, कथन एवं व्यक्तित्व जिसे हदीस भी कहते है)। “लोगो! प्रत्येक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है, और सारे मुसलमान आपस मे भाई भाई हैं।”(मुहम्मद (स० अ० व०)के आखिरी हज के समय दिया गया उद्बोधन से, बुखारी हदीस न० 1623,1636,6361)

फलां(अमुक) क़बीला (जाति) और परिवार के लोग मेरे प्रिय और दोस्त नही हैं,मेरा दोस्त तो ईश्वर और अच्छे मोमिन (जो इस्लामी सिद्धांतों को अक्षरशः पालन करते हैं) हैं। (हदीस न० 5990, बुखारी)

“अपनी नसब (जाति) पर गर्व,दूसरे की जाति पर ताअन (बुरा कहना या ताना मारना), बारिश को सितारों से सम्बंधित करना, मरने वाले के लिए रोना, यह चारो चीज़े अज्ञानता के कर्म हैं, मेरी उम्मत (समाज) उसे नही छोड़ेगी।”(हदीस न०29, मुस्लिम)

जातिवाद के पक्ष की हदीसें

“लोगो! मैं तुम में ऐसी चीज़ छोड़कर जा रहा हूँ कि अगर मज़बूती से इसे थामे रखोगे तो गुमराह (पथभृष्ट) ना होंगे, और वह ईश्वर की किताब (क़ुरआन) है, और मेरे घर वाले मेरी औलाद हैं। 

(हदीस न०2408, तिर्मिज़ी)

मुहम्मद(स० अ० व०) के कथनो का संग्रह तिर्मिज़ी में एक और हदीस (कथन) है कि हुसैन* मुझसे हैं और मैं हुसैन से, ईश्वर ने मुहब्बत की उससे, जिसने मुहब्बत की हुसैन से

* मुहम्मद (स० अ० व०)के सबसे छोटी बेटी फातिमा के छोटे बेटे का नाम, जिसकी नस्ल/ वंश को सबसे उच्च कोटि का सैयद माना जाता है।

“अली द्वारा वर्णित है कि मुहम्मद(स० अ० व०) ने कहा कि क़ुरैश(सैयद, शेख) सारे अरबी लोगो के सरदार (नेतृत्व कर्ता) हैं।”( इब्न अबी आसिम द्वारा वर्णित, फि सुन्ना क़ज़ा फिल कन्ज़ मिनल फ़ज़ाईल, भाग:7, पेज 139; निहायतुल अरिब फि गायतून नसब, मुफ़्ती शफी उस्मानी, जमीयतुल मुसलेहीन सहारनपुर, पेज न०12।)

मुहम्मद (स० अ० व०) रसूल अल्लाह के हदीस (कथन) को अबु सईद के वर्णन से देलिमि निम्नलिखित शब्दो को नकल करते हैं….

सब लोगो से ज़्यादा छोटी* रंगरेज़ हैं। (कंजूल आमाल, भाग- 2, पेज 701)

*छोटी= उर्दू में यही अनुवाद किया गया है जबकि अरबी में असल शब्द अक्ज़ब लिखा है मेरी समझ से जिसका अर्थ या अनुवाद झूठा होना चाहिए। अर्थात सब लोगो से अधिक झूठे रंगरेज़ होतें हैं।

मुहम्मद (स० अ० व०) कहतें है कि

जब प्रलय का दिन होगा तब एक उदघोषक आवाज़ देगा कि वो लोग कहाँ है जिन्होंने भूमि पर रहते हुए ईश्वर के साथ धोखा किया, इसपर ठठेरा, सोनार, और जुलाहे प्रस्तुत किये जायेंगे। इब्न उमर (र ० अ ०)(मुहम्मद(स० अ० व०) के साथी) द्वारा वर्णित, कंजूल आमाल, भाग- 2, पेज 201

अनस (र ० अ ०)(मुहम्मद(स० अ० व०) के साथी) से वर्णित मुहम्मद का कथन है कि

मेरी उम्मत (समाज) में सब से बद्तर (बुरे से भी बुरा) लोग, दस्तकार (शिल्पकार) और सोनार हैं।(पेज न० 201, कंजूल आमाल, भाग- 2, पेज न०12, निहायतुल अरिब फि गायतून नसब, मुफ़्ती शफी उस्मानी, जमीयतुल मुसलेहीन सहारनपुर।)

यहाँ यह बात गैरतलब है कि मुहम्मद(स० अ० व०) ने अपने अंतिम हज (एक प्रकार का धार्मिक कर्मकांड जिसमे काबा नामक भवन की परिक्रमा समेत कई अन्य कर्मकांड होते है और जो साधन सम्पन्न मुसलमानो पर अनिवार्य है) के अवसर पर अपने अंतिम उद्बोधन जिसका वर्णन ऊपर लिखा है, और जिसे पसमांदा आंदोलन से जुड़े कुछ लोग पसमांदा आंदोलन का मूलमंत्र मानते हैं। जिसमें जातिवाद का जबरदस्त विरोध है, उसे कुछ अशराफ उलेमा अंतिम सार्वजनिक उद्बोधन नही मानते और हज से मक्का के तरफ लौटे समय ग़दीर नामक स्थान पर दिए गए उद्बोधन को अंतिम मानते है जिसमें मुहम्मद ने कहा था कि 

“लोगो! मैं तुम में ऐसी चीज़ छोड़कर जा रहा हूँ कि अगर मज़बूती से इसे थामे रखोगे तो गुमराह (पथभृष्ट) ना होंगे, और वह ईश्वर की किताब (क़ुरआन) है, और मेरे घर वाले मेरी औलाद हैं।”(हदीस न०2408, तिर्मिज़ी)

इसमें किताबुल्लाह (ईश्वर की किताब अर्थात क़ुरआन) और अहले बैत और इतरत (घर वाले और रिश्तेदार) वाला मुहम्मद(स० अ० व०) का कथन (हदीस), मुहम्मद के कथनो के प्रसिद्ध संग्रह मुस्लिम और मिश्कात में भी हैं। और कुछ अशराफ उलेमा (उच्व वर्ग के मुस्लिम विद्धवान) इस कथन को सच मानते हैं। कुछ अशराफ उलेमा मुहम्मद के इस कथन को आधार मानकर सैयद जाति के उच्च होने और उसकी बड़प्पन को इस्लामी विश्वास (ईमान) का एक महत्वपूर्ण भाग स्थापित करते है।

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इसी संदर्भ में वन्यजीव, सामाजिक एवं सामुदायिक विकास कार्यकर्ता परवेज़ हनीफ कहते हैं कि “उन अशराफ उलेमा द्वारा भी जो ग़दीर के ख़ुत्बे को सही नही मानते और उसे शिई रिवायत (शिया सम्प्रदाय के अशराफ उलेमा द्वारा उद्धरित) मानते हैं, आयोजित होने वाले इस्लाहे मुआशरा(समाज सुधार), के नाम से होने वाले किसी भी प्रकार के जलसे जुलूस, जमाते इस्लामी, तब्लीग़ी जमात के इज्तमा(सम्मेलन) आदि में आखिरी ख़ुत्बे का कभी भी किसी भी प्रकार से चर्चा आमतौर से नही करते हैं।” यही नही आखिरी ख़ुत्बे से सम्बंधित कोई किताबचा (हैंड बुक, छोटी किताब) आप को बाजार में ढूंढे नही मिलेगी जबकि छोटी से छोटी इस्लामी मालूमात की किताबें आप को अनेकानेक लेखकों की लिखी हुई आमतौर से आसानी के साथ उपलब्ध है। अशराफ द्वारा मुहम्मद (स० अ० व०) के आखिरी उद्बोधन का इस प्रकार उपेक्षा अशराफ उलेमा की एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा जान पड़ता है ताकि पसमांदा समाज में जातिरहित इस्लाम ना खुल जाए और मुस्लिम समाज पर उनके वर्चस्व को पसमांदा की ओर से चुनौती ना मिलने लगे।

यहाँ संक्षेप में उदाहरणस्वरूप हदीसों को लिखा गया है, वर्ना जातिवाद के पक्ष में अनगिनत हदीसें है जिसमें बनू क़ुरैश जाति, बनू हाशिम जाति, बनू फातिमा जाति और अली के बड़प्पन का और कामगर (दस्तकार/शिल्पकार) जातियों के नीचता का बखान है। और जिनकी संख्या जातिवाद के विरोध वाली हदीसों से बहुत अधिक हैं।

अशरा-ए-मुबशशिरा

अशरा के अर्थ दस की संख्या होता है, मुबशशिरा का अर्थ होता है जिसे बशारत (खुशी, प्रसन्नता) सुनाई जा चुकी हो। इस्लामी इतिहास में ऐसे दस लोग जिनको मुहम्मद(स० अ० व०) द्वारा इसी संसार में स्वर्ग भोगने का परवाना (गारेंटी) दिया जा चुका है, अशरा-ए-मुबशशिरा कहलाते हैं। इस लिस्ट में भी सभी दस लोग केवल बनू क़ुरैश (सैयद, शेख) जाति से ही सम्बंधित हैं, अन्य किसी जाति के किसी भी व्यक्ति को इस सूची में जगह नही दिया गया है। जबकि बनू ओवैस और बनू खजरज जाति के लोगो, जिनको मुहम्मद ने उनके इस्लाम और खुद के लिए दिए गए बलिदानों के लिए उपहार स्वरूप अंसार/ अंसारी (मदद करने वाला) नाम दिया था, तक का ज़िक्र नही है।

खिलाफत

इस पर बात करने से पहले एक इतिहासिक तथ्य से परिचित होना ज़रूरी जान पड़ता है वो ये कि इस्लाम की पहली लड़ाई “बदर” में मक्का के तीन क़ुरैश जाति के लोगो ने आगे आकर मुसलमानो को ललकारा जिसके जवाब में तीन अंसारी (ओवैस और खजरज) जाति के लोग आगे आये तो मक्का के क़ुरैश जाति के लोगो ने कहा कि इस जाति के लोग हमारे कूफ़ु (बराबर) नही है हम इनसे नही लड़ेंगे जिसपर मुहम्मद(स० अ० व०) ने क़ुरैश जाति के अन्य तीन लोगों को उनके मुक़ाबिले के लिए भेजा।

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हदीस की प्रसिद्ध किताब बुखारी में लिखा है“अल-अइम्मतू मेन अल-क़ुरैश अर्थात नेतृत्वकर्ता (नेता,अमीर,खलीफा) क़ुरैश जाति (सैयद, शेख) में से ही है। ये हदीस तब प्रकाश में आया जब रसूल अल्लाह मुहम्मद के दुनिया से चले जाने के बाद खलीफा के लिए दो अंसारी सहाबियों में होड़ मची जिसकी सूचना अबु बकर को हो हुई, जिसपर वो अपने साथ अन्य दो क़ुरैश जाति के उमर फारूक(र ० अ ०) और अबु उबैदा (र ० अ ०) को लेकर लोगो के बीच पहुंचे और उक्त हदीस को उद्धरित करते हुए कहा कि अंसारी कैसे खलीफा हो सकता है ये तो क़ुरैश का हक़ है, आप लोग उमर या अबु उबैदा(र ० अ ०) में से किसी को भी अपना खलीफा चुन ले, जिसके जवाब में तुरन्त ही उमर ने आगे बढ़ के कहा कि ऐ अबु बकर(र ० अ ०) आप के रहते मैं कैसे खलीफा हो सकता हूँ, मैं आप के हाथ पर बैत करता हूँ (अर्थात आप को खलीफा चुनता हूँ) जिसके बाद अबु उबैदा(र ० अ ०) ने बैत किया फिर और लोगो ने, इस प्रकार अबु-बकर (र ० अ ०) इस्लाम के पहले खलीफा बनते हैं, जबकि अन्य दो अंसारी जाति के सहाबियों ने बैत नहीं किया और सभा से उठ के चल दिए। गौरतलब है कि अबूबकर(र ० अ ०) ने अपने उत्तराधिकारी के लिए किसी भी प्रकार का चुनाव आदि का सहारा ना लेते हुए डायरेक्ट उमर को खलीफा नामजद किया (क्या पता अबू-बकर(र ० अ ०) ने उमर(र ० अ ०) द्वारा खुद को खलीफा बनाये जाने का एहसान उतारा हो)
इसी हदीस के सम्बंध में अशरफ अली थानवी कहतें है कि-

“खिलाफत कुरैशी के लिए है, गैर-कुरैशी बादशाह को सुल्तान कहा जायेगा लेकिन इताअत (आज्ञा-पालन) इसकी भी वाजिब (ज़रूरी) होगी। कुछ लोगो ने ये जो कहा है कि गैर-कुरैशी भी खलीफा हो सकता है तो यह नस (क़ुरआन/हदीस) के विरुद्ध है, इसलिए कि जब हज़रात अन्सार पर यह नस पेश की गयी तो उन्होंने भी इसे स्वीकार कर लिया। इसलिए जैसे इस पर सहाबा (मुहम्मद के साथियों) का इज्मा (एक राय होना जिसे फिर इस्लाम का कानून मान लिया जाता है) हो गया। इसलिए जिन लोगो के क़ब्ज़े में सल्तनतें हैं वह अगर कुरैशी को जब कि उस मे योग्यता हो, खलीफा ना बनाये तो मुजरिम होंगें।”(पेज न० 52, मलफूज़ात हकीमुल उम्मत भाग-26, मुफ़्ती मो० हसन अमृतसरी, इदारा तालिफात-ए-अशरफिया, सलामत इक़बाल प्रेस, चौक फव्वारा,मुल्तान,पाकिस्तान, email:taleefat@mul.wol.net.pk)

एक और हदीस है जिसे इब्न उमर(उमर का बेटा) वर्णित करते हैं

“नेतृत्व क़ुरैश जाति में ही रहेगी जब तक कि उनमें दो आदमी भी बचे रहेंगे।” (सहीह मुस्लिम, किताबुल इमारत पेज न० 109)

आप देखेंगे कि प्रारम्भ के खलीफाओं में सब के सब एक विशेष जाति यानि क़ुरैश से हुए है। जब कि इस्लाम के लिए त्याग और बलिदान में ओवैस और खजरज जाति (जिस से प्रभावित होके रसुल अल्लाह मुहम्मद (स० अ० व०) ने अंसार या अंसारी नाम दिया था जिसका शाब्दिक अर्थ है मदद करने वाला) के लोगो ने क़ुरैश से ज़्यादा बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया था। प्रारम्भ के चारो बड़े खलीफा उसके बाद उमैय्या (बनू-उमैय्या क़ुरैश की एक उपजाति) और अब्बासी (बनू-अब्बास, क़ुरैश के एक अन्य उपजाति जो वंशावली में मुहम्मद से ज़्यादा निकट है जिस कारण उनका खिलाफत का दावा औरों के सापेक्ष सब से मज़बूत था) खलीफा क़ुरैश जाति से ही थे। उसके के बाद तुर्क जाति के उस्मानी पहले सुलतान (राजा) फिर खिलाफत के तीनों प्रतीको अंगूठी, छड़ी और चोंगा (एक विशेष प्रकार का परिधान जो जैकेट की तरह कपड़े के ऊपर से डाल लिया जाता है।) को प्राप्त कर इस्लामी सर्वोच्च सत्ता, खिलाफत भी प्राप्त कर लिया। तुर्क जाति के खलीफा का क़ुरैश होना तो दूर की बात है अरबी तक नही थे जिसके कारण अरब के लोग दिल से तुर्को को अपना खलीफा नही मानते थे। और जैसे ही मौका मिला ब्रिटिश और अमेरिका का साथ देकर तुर्की खिलाफत से छुटकारा पा लिया। (प्रथम विश्व युद्ध) आज भी तुर्की को अरब देशों की सरकार और लोग कम पसन्द करते हैं।

खलीफा की सेलरी/पारितोषिक का निर्धारण भी जाति और क्षेत्र आधारित था। क्योंकि क़ुरैश जाति के लोग अपना वतन मक्का छोड़ के यश्रीब (मदिनतुन्नबी= नबी/ईशदूत का मदिना/नगर, जो बाद में केवल मदिना के नाम से प्रसिद्ध हुआ) में आबाद हो गए थे और यही से इस्लाम का विस्तार हुआ। लेकिन पारितोषिक निर्धारण में मक्का के क़ुरैश जाति के सरदार के खर्च और रख रखाव के बराबर रक़म तय किया गया। अर्थात क्षेत्र और जाति दोनो को ध्यान में रखा गया।

(पेज न०198, जिल्द -3,तबक़ात इब्न सईद, पेज न० 9 निहायतुल अरिब फि गायतून नसब, मुफ़्ती शफी उस्मानी, जमीयतुल मुसलेहीन सहारनपुर।)

सूफी परम्परा

तीसरे खलीफा उस्मान(र ० अ ०) के विरुद्ध कई प्रकार के आरोप थे जिसमें एक आरोप यह भी था कि वो अपने सजातीय लोगो ( बनू उमैय्या) को शासन प्रशासन में अधिक भागेदारी दे रहें हैं। जिसकारण उनके विरुद्ध विद्रोह कर उनकी हत्या कर दी गई। ऐसी परिस्तिथि में अली को खलीफा नियुक्त किया जाता है। लेकिन सीरिया के शासक माविया जो बनू उमैय्या उपजाति से थे, ने यह कहते हुए केन्द्रीय सत्ता (खिलाफत) से विद्रोह कर दिया कि मुझे अपने जाति के उस्मान की हत्या का क़सास (बदला) लेने का इस्लामी अधिकार है और उस्मान (र ० अ ०) के हत्यारों को जबतक मुझे नही सौंपा जाता मैं बैत नही करूँगा (अर्थात नवनियुक्त खलीफा को खलीफा स्वीकार नही करूँगा)। नवनियुक्त खलीफा अली ने इसका संज्ञान लेते हुए माविया को विद्रोही करार दिया और उनके विरुद्ध स्वयं सेना लेकर कूच किया और सीरिया से निकट कूफ़ा नामक स्थान पर नई राजधानी बसाई ताकि सीरिया के समीप रह कर माविया को दंडित किया जा सके। अपने पूरे शासन काल में माविया पर कई बार चढ़ाई किया किंतु सफल नही हो सके। इस प्रकार उस समय दो समांतर इस्लामी शासन चलते रहे जिसका नेतृत्व क़ुरैश के दो उपजाति के लोग करते रहें।

अली(र ० अ ०) के बाद उनके बड़े पुत्र (फातिमा(र ० अ ०) से उत्पन्न) हसन(र ० अ ०) खलीफा बनाये जाते हैं लेकिन उन्होंने माविया(र ० अ ०) से संधि करके खिलाफत उनको सौंप दिया। (और शायद यही एक बड़ी वजह जान पड़ती है कि सैय्यद लोग हसन की चर्चा उस तरह से नही करते जैसे वो उनके छोटे भाई हुसैन(र ० अ ०) की करते है जिन्होंने केन्द्रीय इस्लामी सत्ता और खलीफा यज़ीद ( माविया के पुत्र) के विरुद्ध विद्रोह किया लेकिन रणभूमि में खेत रहें) जब खिलाफत क़ुरैश के एक अन्य उपजाति बनू उमैय्या के पास चली गयी तब कुछ लोगो ने बनू-उमैय्या के खिलाफ यह कहते हुए विद्रोही मुहिम चलाई कि खिलाफत तो बनू-हाशिम का हक़ है मुहम्मद की बेटी फातिमा और अली (मुहम्मद के चचेरे भाई फिर दामाद) के वंश ( बनू फातिमा) में होनी चाहिए, क्योकि क़ुरैश की यह उपजाति मुहम्मद (स० अ० व०) के वंशावली से अधिक निकट हैं, यहाँ यह बात याद रखनी चाहिए कि अली की अन्य पत्नियों से उत्पन्न पुत्रो और उनके वंश को फातिमा से उत्पन्न पुत्रो और उनके वंश की अपेक्षा कम दर्जे की मान्यता है। और खिलाफत वापसी का संघर्ष करना शुरू किया जिसमें उनका साथ बनू-अब्बास नामक क़ुरैश की दूसरी उपजाति ने दिया। लेकिन सत्ता (खिलाफत) बनू हाशिम (बनू फातिमा, सैयद) के बजाय बनू अब्बास को प्राप्त होती है। अब्बासियों के शासन काल में सैय्यद जाति के बहुत से लोगो ने खिलाफत प्राप्ति के लिए यह कहते हुए विद्रोह किया कि चुँकि हम अली-फातिमा के संतान होने के नाते मुहम्मद के घर वाले हैं जिसकारण खिलाफत (सर्वोच्च इस्लामी सत्ता) पर हमारा नैसर्गिक अधिकार है। लेकिन कभी सफल नही रहें।

जब सैय्यद जाति (बनू फातिमा) के लोग भौतिक सत्ता(खिलाफत) नही प्राप्त कर पाते हैं तो ऐसी सूरत में आध्यात्मिक सत्ता की परिकल्पना की नींव डाली गई जो सूफी परम्परा कहलायी। सूफी परम्परा के खलीफा का सिलसिला अली से जाकर मिलता है फिर अली(र ० अ ०) से मुहम्मद<em>(स० अ० व०) में मिल जाता है। सूफीवाद में अली को इस्लाम का पहला खलीफा माना जाता है (दमादम मस्त कलंदर अली दा पहला नंबर) इसका आधार मुहम्मद के कथनों को बनाया जाता है जिसमें कुछ प्रमुख निम्नवत हैं….

“मैं जिसका मौला* हूँ अली उसके मौला हैं”

(तिर्मिज़ी हदीस न० 6082, 6094)

*मौला का अर्थ गुलाम,मालिक,अभिभावक,दोस्त, लीडर, संरक्षक, आदि के होते हैं जो प्रसंग के अनुसार प्रयोग होते हैं।

“अली मुझसे है और मैं अली से हूँ, और वह मेरे बाद सभी अनुवायियों का अभिभावक है” (तिर्मिज़ी भाग-2, पेज 298,ईमाम हकीम मुस्तद्रक, भाग 03, पेज न० 111)

“मैं ज्ञान हूँ और अली उसका द्वार है।”(ईमाम हकीम मुस्तद्रक, भाग 04, पेज न० 96, हदीस 4613, अब्दुल्लाह पुत्र ज़ुबैर द्वारा वर्णित)

सूफी परंपरा में भी खिलाफत (नेतृत्व) देने की प्रक्रिया रही है जिसमे एक खलीफा अपने मुरीदों (शिष्यों) में से किसी एक को बैत लेने का अधिकार देता है जो आगे चल के उस सूफी परम्परा का खलीफा या पीर कहलाता है। यहाँ भी उक्त हदीस के रिफरेन्स (हवाले) देकर खिलाफत हमेशा क़ुरैश(सैयद, शेख) जाति के लोगो को की दिया जाता है और उसमें भी सैयद को वरीयता दिया जाता है और फिर सैयदों में फ़ातिमी सैयदों को वरीयता देने की मान्यता है। आज भी ये परंपरा चली आ रही है। सूफी या पीर के कब्र को दरगाह/दरबार कहा जाता है जिसका अर्थ राजदरबार होता है। सूफी या पीर अपने नाम के आगे या पीछे शाह का शब्द जोड़ते है जिसका अर्थ राजा के होता है। इससे साफ तौर पर पता चलता है कि यह एक प्रकार की परोक्ष सत्ता का ही निर्धारण है। एक प्रकार से ये सूफी या पीर समानांतर सरकार चलाते थे और सरकार में अपने मनपसंद आदमी को पहुँचाना और कभी-कभी राजा भी अपने मनपसंद के आदमी को बनवा लेते थे। और आज भी ये अशराफ सूफी, वली, उलेमा सरकार से निकटता बनाये हुए शासन प्रशासन में अपना दखल रखतें हैं।

अतः यह कहा जा सकता है कि सूफी परम्परा, सैयदवाद का ही पोषक है।

कूफ़ु का सिद्धान्त

कूफ़ु का शाब्दिक अर्थ बराबरी, समान और मेल के होता है। इस्लामी विधि में कूफ़ु का मतलब यह होता है कि शादी विवाह के लिए कौन-कौन एक समान या एक मेल या एक बराबर के हैं, इसमे कई एक पॉइंट है जिनकी संख्या सात तक पहुंचती है, इसमे भी अशराफ उलेमा में विरोधाभाष है कोई तीन पॉइंट को मानता है कोई चार कोई पाँच कोई सात को, लेकिन लगभग सभी के नज़दीक नसब/नस्ल/जाति का पॉइंट ज़रूर मिलता है। जिसमे स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है कि अमुक जाति की कन्या अमुक जाति के वर के लिए बराबर है (कूफ़ु है) और अमुक के लिए बराबर नही है, अर्थात जातिगत विभेद को पूर्णतया मान्यता प्रदान किया गया है और अंतरजातीय विवाह को इस्लाम विरोधी और ऐसे सम्पन्न विवाह को अमान्य करार दिया गया है। इस्लामी विधि के चार बड़े सर्वमान्य मसलको(सम्प्रदायो) में से तीन मसलक इसकी मान्यता देते हैं जबकि इमाम मालिक द्वारा संपादित मसलक जाति आधारित कूफ़ु का विरोध करता है और विवाह के लिए धार्मिक कर्तव्य परायणता को वरीयता देता है।

जुमा का ख़ुत्बा

शुक्रवार (जुमा) को प्रार्थना (नमाज़/ सला) से पहले दिए जाने वाला उपदेश जुमे का ख़ुत्बा(उपदेश) कहलाता है। जुमे के ख़ुत्बे को लेकर अशराफ उलेमा में विरोधाभास देखने को मिलता है लेकिन जातीय बड़प्पन लगभग सभी फिरके और मसलको (सम्प्रदायो) के ख़ुत्बे में पाया जाता है। इस ख़ुत्बे में भी एक विशेष जाति बनू क़ुरैश के लोगो और फिर उसमे भी क़ुरैश की उपजाति बनू फातिमा (मुहम्मद (स० अ० व०) की सबसे छोटी बेटी फातिमा(र ० अ ०) के वंशज; फातमी सैयद, सैयदों में सब से पवित्र और उच्च माने जाते हैं) के लोगो का ही गुणगान होता है, विशेषतया फातिमा (र ० अ ०)और उनकेे बेटे हसन और हुसैन लगभग सभी ख़ुत्बो में कॉमन है, कुछ ख़ुत्बे में प्रथम चारो खलीफाओं और मुहम्मद (स० अ० व०)के चाचाओं का वर्णन भी मिलता है। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि जुमे की सला/नमाज़ सर्वप्रथम एक अंसारी सहाबी (मुहम्मद(स० अ० व०) के साथी) असद बिन जरारा ने प्रारम्भ किया था लेकिन किसी भी मसलक/फ़िरके के ख़ुत्बे में उनका नाम नही लिया जाता है। दूसरी एक और बात गौर करने की है कि ना तो मुहम्मद के अन्य किसी दूसरी बेटियों का नाम और ना ही उनकी किसी सन्तान का नाम किसी भी प्रकार के ख़ुत्बे में दर्ज है।

दरूद व सलाम

प्रत्येक नमाज़/सला (प्रार्थना) में पढ़ा जाने वाला दरूद (एक प्रकार का अरबी भाषा मे लिखा गया मंत्र) में भी इब्राहिम ( अ०स०)और उसके आल( सन्तानो) और मुहम्मद(स० अ० व०) और उसके आल (सन्तानों) के लिए शांति की प्रार्थना किया गया है। अशराफ उलेमा दरूद से क़ुरैश और सैयद जाति (मुहम्मद(स० अ० व०) के वंशज) के उच्च होने की दलील लाते है और कहते है कि सैयदों के लिए तो पूरी दुनिया के मुसलमान हर नमाज़ में दुआ करते हैं। जबकि कुछ पसमांदा उलेमा ने इस्लाम के जातिवादी रहित चरित्र की रक्षा करते हुए इस दरूद की व्याख्या करते हुए “आल” शब्द का अनुवाद सन्तान से ना करके इब्राहिम अ०स० और मुहम्मद(स० अ० व०) के मानने वाले सारे मुसलमानो से किया है और दलील के रूप में क़ुरआन की उस पंक्तियों का उद्धरण करते है जिसमें आल शब्द का अर्थ सन्तान के अर्थ में ना होकर उसके मानने वाले और अनुयायी से है।

फ़िरक़ा/मसलक

अशराफ ने फ़िरके बनाया ही अपनी सरदारी और वर्चस्व को मेन्टेन रखने के लिए। जिस अशराफ को उक्त फिर्के में सरदारी नही मिली उसने तुरंत एक नया फ़िरक़ा गढ़ लिया और उसका सरदार बन बैठा और यह सरदारी भगवान के दर्जे तक की होती है कि फिर्के के अशराफ संस्थापक हर तरह के सवाल जवाब से मुक्त और तमाम इंसानी कमी कोताही से पाक समझा जाता है और उस पर सवाल उठाने वाले और कमी निकलने वालों को इस्लाम से बहिष्कृत( काफिर/कुफ्र का फतवा) कर दिया जाता है। दूजा पसमांदा अपने मानने के जज़्बे के साथ सभी फिर्को का इतना मज़बूत सिपाही बन जाता है कि अपनी जान तक देने को तैयार रहता है इसीलिए फिरको की लड़ाई में खून सिर्फ पसमांदा का बहता है और वर्चस्व अशराफ की मैंटेन रहता है।

यही अशराफ फिर्के को लेकर स्वयं इतना लिबरल(उदार) और जाति को लेकर इतना कट्टर होता है कि एक फिर्के का अशराफ दूसरे फिर्के के अशराफ से रिश्ता करने में ज़रा भी नही हिचकिचाता ( जिसे स्वयं काफिर घोषित किये हुए है) जबकि पसमांदा के मन-मस्तिष्क में फिरकापरस्ती का ऐसा वायरस पेवस्त किये हुए है कि एक ही जाति का पसमांदा उसी जाति के दूसरे मसलक/फिर्के के मानने वाले पसमांदा से शादी विवाह का रिश्ता नही रखता (क्योंकि दूसरे फिर्के वाले को पहले फिर्के के अशराफ मौलवी ने काफिर घोषित कर रखा है, और काफिर से वैवाहिक सम्बन्ध को वर्जित/हराम करार दे रखा है)।

एक दृष्टिकोण यह भी है कि अशराफ उलेमा द्वारा आसिम बिहारी के आंदोलन को कमज़ोर करने और पसमांदा की एकता को तोड़ने के लिए इस्लामी मसलक/ फिर्के का खेल खेला गया और इस्लाम की कई एक व्याख्या करते हुए देवबन्दी, बरेलवी, अहले हदीस आदि नामों से फिर्के और मसलक बनाये गए जिसका नेतृत्व आजतक अशराफ उलेमा ने अपने पास रखा।

अशराफ का पक्ष

अशराफ द्वारा जातिवाद के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि जातियाँ कभी भी ख़त्म नही हो सकती क्योंकि क़ुरआन में है कि जातियाँ पहचान के लिए बनाई गईं हैं। अधिकतर अशराफ उलेमा का यह अक़ीदा (आस्था) है कि वंश/जाति पर गर्व करना यद्यपि हराम (वर्जित) है लेकिन इसका मतलब यह नही कि वंश/जाति की उच्चवता कोई चीज़ ही नही और यह एक ईश्वरी उपकार (नेअमत) है। मुहम्मद के कथनो (हदीसो) के परस्पर विरोधाभास का लाभ उठाकर अशराफ उनके दोनों कथनो का प्रयोग समय और स्तिथियो के अनुरूप करता है। एक अजीब बात है कि जो इस्लामी विद्धवान जातिवादी हदीसो को गढ़ा हुआ हदीस मानते है उन्होंने भी कभी उन हदीसो को हदीस की किताबो से बाहर नही निकाला है। बल्कि आज भी सभी सुरक्षित रखे गए हैं।

पसमांदा पक्ष

पसमांदा आंदोलन से जुड़े कुछ पसमांदा कार्यकर्ता क़ुरआन की जातिवादी व्याख्या और मुहम्मद के जातिवादी कथनो को अशराफ द्वारा गढ़ा/ तोड़ मरोड़ किया हुआ मानते हैं। और वो क़ुरआन और मुहम्मद के अन्य जातिवाद विरोधी कथनो को सत्य मानकर मुहम्मद के आखिरी उद्बोधन जिसमे जातिवाद का प्रबल विरोध है, को पसमांदा आंदोलन का नीति पत्र मानतें हैं। और क्या पता शायद इनके पूर्वज (बहुजन/शुद्र/अछूत/शिल्पकार/मूलनिवासी) इस्लाम के इसी रूप के कारण कालांतर में मुस्लिम धर्म अपनाया हो। बाकी सवर्ण के धर्म परिवर्तन का प्रमुख कारण राजनैतिक स्वार्थ और खुद के वर्चस्व का संरक्षण ही रहा है।

सारांश

उपर्युक्त विवरण से ये साफ पता चलता है कि इस्लाम में जातिवाद का कांसेप्ट भले ही क़ुरआन में और मुहम्मद(स० अ० व०) के चरित्र में ना रहा हो और उन्होंने अपने जीवन काल और सुधारवादी कार्यक्रम में जातिवाद/नस्लपरस्ती का विरोध किया हो लेकिन उनके जाने के बाद से ही ये इब्लीसवादी/शैतानी प्रवृति इस्लाम का हिस्सा रहा है। किसी ने ठीक ही कहा है…

“कौन महमूद (स० अ० व०)किस अयाज़ की बातन कोई रमज़ है न राज़ की बातएक ही सफ़ का बस तमाशा हैतेरी शोहरत है तेरे नाज़ की बात जितना रुतबा था उतनी आगे सफ़ कौन कहता है थी नमाज़ की बात”(मूल उर्दू से मुहम्मद इरफान उर्फी द्वारा लिप्यान्तरित एवं अनुवादित)

आज भी मुस्लिम समुदाय के सभी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मामले में जातीय अस्मिता और बड़प्पन को वरीयता दिया जाता है इसीलिए एक खास जाति/नस्ल/ क़बिले (सैयद, शेख) के ही लोग सभी संसाधनों समेत सभी संस्थाओ और संगठनों एवं देश/ राज्य के मालिक/अधिकारी हैं। शादी विवाह के लिए इस्लामी फ़िक़्ह (विधि) में कूफ़ु का सिद्धान्त जातीय बन्धन को मान्यता देता है।

इस्लाम में सैद्धान्तिक रूप से जातिवाद है कि नही यह एक इल्मी बहस तो हो सकती है लेकिन जहाँ तक सामाजिक बदलाव और सामाजिक न्याय का सवाल है यह बात कही जा सकती है कि इस समय संसार मे जो इस्लाम प्रचलित है वो पूरी तरह से जातिवाद की कैद में है। प्रोफेसर शफीउल्लाह अनीस अपनी कविता के माध्यम से इसी बात को कुछ यूँ बयान करते हैं….

इस्लाम दो है एक जो आसमान में हैऔर एक वह जो ज़मीन पर हक़ीक़त क्या है मैं क्या जानूं खून आसमान में तो नहीं बहता गाली आसमान में नहीं पड़ती ज़ाति का फ़र्क़ नस्ल का भेद यह सब क्या तिलिस्म है? फरेब है? माना के आसमानी इस्लाम में यह सब नहीं क्या इसी बात से तसल्ली कर लूं मैं माना के आसमानी इस्लाम में यह सब नहीं मगर मैं आसमान में नहीं रहता मेरी हक़ीक़त यहीं है इसी ज़मीन पर जिस इस्लाम के पहले खलीफा की नियुक्ति जाति के आधार पर होती है, उसका पारितोषिक जाति आधारित तय होता है, तीसरे खलीफा की हत्या जाति के आधार पर होती और जुम्मे का ख़ुत्बे में एक जाति विशेष की महत्ता का बखान हो शादी विवाह के लिए जातीय बंधन हो, वो इस्लाम कैसे जातिवाद रहित होने का दावा कर सकता है। एक दिलचस्प बात यह भी है कि इस्लामी इतिहास के कालखण्डो के नाम भी जाति आधारित हैं जैसे अहदे बनू उमैय्या ( बनू उमैय्या काल) अहदे बनू अब्बासिया (बनू अब्बासी काल) अहदे उस्मानी (तुर्क जाति के उस्मानी लोगो का काल)

पुरुषोत्तम अग्रवाल अपने लेख “मुस्लिम राजनीति में नया मोड़” में लिखते हैं कि सच्चाई यह है

कि इस्लाम का उदय तो हुआ सभी अनुयायियों की बराबरी और उनके आपसी भाईचारे के ईश्वरी सिद्धान्त मानते हुए, लेकिन जैसे जैसे इस्लाम मध्यकालीन सामंती सत्ता तन्त्रो से जुड़ता गया वैसे वैसे सिद्धान्त और व्यवहार में खाई बढ़ती चली गयी। सिद्धान्त भाईचारे का ही रहा, व्यवहार सामंती समाज मे स्वीकृत जन्मजात ऊँच नीच के अनुकूल होता गया, सुल्तानों का इस्लाम पैग़म्बर के इस्लाम से जुदा हो गया।” (दैनिक सहारा नई दिल्ली, 23.09.1996) कुल मिला के यह कहा जा सकता है कि इस्लाम दो तरह का है एक अशराफ का इस्लाम और दूसरा पसमांदा का इस्लाम। पसमांदा ऊंच नीच रहित मुहम्मद(स० अ० व०) के सैद्धान्तिक इस्लाम की वकालत करता है वहीं अशराफ अपने द्वारा व्याखित इस्लाम को ही इस्लाम मानता है और उसे ही पसमांदा पर लादे हुए है। और विडम्बना यह है कि अशराफ का इस्लाम ही समाज में मान्य और प्रचलित है।

आभार:

मैं हज़रत मौलाना प्रोफेसर मसूद आलम फलाही और आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के महासचिव व कार अहमद हवारी साहेबान का आभार व्यक्त करता हूँ जिनसे इस्लाम और इस्लामी इतिहास पर वर्षो से चले आ रहे वार्तालाप के फलस्वरूप कई एक तथ्य और सच्चाई सामने आई, जो इस लेख के अस्तित्व में आने का कारण बना।



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